देख़ो लोगों मेरे जाने का है पैग़ाम आया..(2)
ख़ुदा के घर से है ये ख़त, मेरे नाम आया….देख़ो लोगो…
जिसकी ख़वाहिश में ता-जिन्दगी तरसते रहे।
वो तो ना आये मगर मौत का ये जाम आया। ख़ुदा के घर…..
ज़िंदगी में हम चमकते रहे तारॉ की तरहॉ ।
रात जब ढल गइ, छुपने का ये मक़ाम आया। ख़ुदा के घर…..
राह तकते रहे-ता जिन्दगी दिदार में हम |
ना ख़बर आइ ना उनका कोइ सलाम आया । ख़ुदा के घर…..
चल चुके दूर तलक मंज़िलॉ की खोज में हम।
अब बहोत थक गये रुकने का ये मक़ाम आया। ख़ुदा के घर…..
हम मुहब्बत् में ज़माने को कुछ युं भूल गये ।
हम है दिवाने, ज़माने का ये इल्ज़ाम आया। ख़ुदा के घर…..
जिसने छोडा था ज़माने में युं तन्हा “रज़िया”
क़ब्र तक छोड़ने वो क़ाफ़िला तमाम आया। ख़ुदा के घर…..
3 comments:
"क़ब्र तक छोड़ने वो क़ाफ़िला तमाम आया" हमारी रूह तो इतने से ही खुश हो जावेगी. क्या कहें, आपका कलाम लाजवाब रहा.
चल चुके दूर तलक मंज़िलॉ की खोज में हम।
अब बहोत थक गये रुकने का ये मक़ाम आया
बहुत ही लाजवाब गीत है........... लयबद्ध कर के गाने में मज़ा आ जाएगा........... दिल की जज्बातों को सुन्दर से बयान किया है आपने इस रचना में...........
जिसकी ख़वाहिश में ता-जिन्दगी तरसते रहे।
वो तो ना आये मगर मौत का ये जाम आया।
बहुत बेहतरीन रचना और एहसास की रचना --
सादगी काबिले तारीफ़
Post a Comment