Tuesday, July 28, 2009
एक सबक़ इमानदारी का !!!
अम्मी को “केंन्सर’ होने की वजह से अम्मी को लेकर मुझे बारबार
रेडीएशन के लिये बडौदा ओंकोलोजी डिपार्टमेंन्ट में जाना होता था। शरीर के
अलग अलग हिस्सों के “केन्सर” से ज़ूजते लोग और उन्के मृत्यु को थोडा दूर
ले जाने कि कोशिश करते उनके रिश्तेदारों से मिलना लगा रहता था। हांलाकि
मैं भी तो अस्पताल का ही हिस्सा हुं।
पर ये तो “केन्सर”!!!! ओह!
मरीज़ से ज़्यादा मरीज़ के रिश्तेदारों को देखकर दिल में दर्द होता था। एक
तरफ “केन्सरग्रस्त” का दया जनक चहेरा, दुसरी तरफ अपने कि ज़िंदगी कि एक
उम्मीद लिये आये उनके रिश्तेदार। बड़ा दर्द होता था। कोइ पेट के “केन्सर’
से ज़ूज रहाथा तो कोइ गले के। कोइ ज़बान के तो कोइ गर्भाशय के! बडे बडे
लेबल लगे हुए थे “केन्सर” से बचने के या उसको रोकने के।
बडौदा जिले का ये बड़ा सरकारी अस्पताल है। यहाँ रेडीएशन
और् किमोथेरेपी मुफ़त में दी जाती है। देशभर से आये मरीज़ों का यहाँ इलाज
होता है। दूर दूर से आनेवाले मरीजों और उनके रिश्तेदारों के रहने के
लिये
अस्पताल के नज़दीक ही एक ट्र्स्ट “श्रीमती इन्दुमति ट्र्स्ट”
ने व्यवस्था कर रखी है, जिसमें मरीज़ों तथा उनके एक रिश्तेदार को दो वक़्त
का नाश्ता और ख़ाना दिया जाता है।
रहीमचाचा और आयेशाचाची भी वहीं ठहरे हुए थे।
आयशाचाची को गले का केन्सर था। हररोज़ के आनेजाने से मुझे उनके साथ बात
करना बड़ा अच्छा लगता था। कहते हैं ना कि दर्द बांटने से कम होता है मैं
भी शायद उनका दर्द बाँटने की कोशिश कर रही थी। घर से दूर रहीमचाचा
आयशाचाची अपने दो बच्चों को अपनी बहन के पास छोडकर आयेथे। उनका आज
तैइसवाँ “शेक”(रेडीएशन) था।
“कल और परसों बस बेटी अब दो ही शेक बाक़ी
हैं ,परसों दोपहर, हम अपने वतन को इन्दोर चले जायेंगे।“ रहीमचाचा ने कहा।
तो अपने बच्चों के लिये आप यहां से क्या ले जायेंगे? मैने पूछा। ”बेटी
मेरे पास एक हज़ार रुपे है। सोचता हुं आमिर के लिये बोल्बेट और रुख़सार के
लिये गुडिया ख़रीदुंगा। बेटी अब तो काफ़ी दिन हो गये है। अल्लाह भला करे इस
अस्पताल का जिसने हमारा मुफ़्त इलाज किया। भला करे इस ट्र्स्ट का जिसने
हमें ठहराया, ख़िलाया,पिलाया। और भला करे इस रेल्वे का जो हमें इस बिमारी
कि वज़ह से मुफ़्त ले जायेगी। अब जो पांचसो रुपये है देख़ें जो भी
ख़िलौने ,कपडे मिलेंगे ले चलेंगे।
उस रात को घर आनेपर मैने सोचा कि कल इन लोगों का आख़री दिन है मैं
भी इनके हाथों में कुछ पैसे रख़ दुंगी। दुसरे दिन जब मैं वहाँ पहुंची चाचा
चाची बैठे हुए थे। मैने सलाम कहकर कहा “चाची क्या ख़रीदा आपने? हमें भी
दिख़ाइये।“आज तो आप बडी ख़ुश हैं। “
चाची मुस्कुराइ, और रहीमचाचा के सामने शरारत भरी निगाह
से देख़ा। मैंने चाचा के सामने जवाब के इंतेज़ार में देख़ा। चाचा बोले” अरे
बेटी ये अल्लाह कि नेक बंदी से ही पूछ।
क्यों क्या हुआ?मैने पूछा!
रहीमचाचा बोले” कहती है’ हमने मुफ़त ख़ाया पीया तो क्या हमारा
फ़र्ज़ नहिं की हम भी कुछ तो ये ट्र्स्ट को दे जायें? अल्लाह भी माफ़ नहिं
करेगा हमें” बच्चों के लिये तो इन्दोर से भी ख़रीद सकते हैं। बताओ बेटी
अब मेरे पास बोलने के लिये कुछ बचा है?”
रहीम चाचा कि बात सुनकर मैं चाची को देख़ती रही। अपने आप से शर्म आने
लगी मुज़े।
हज़ारों कि पगारदार, कमानेवाली मैं!! एक ग़रीब को कुछ पैसे देकर अपनी
महानता बताने चली थी। पर इस गरीब की दिलदारी के आगे मेरा सर ज़ूक गया।
वाह1 आयशा चाची वाह!!
!सलाम करता है मेरा सर तूम्हें जो तुम मुझे इमानदारी का सबक़ दे गइ।
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4 comments:
bahut sachha or achcha likha hai....anubhaw shaere karene ke liye shukriya
शायद यही वो जज्बात है जिसने हमे फिर भी इंसान बनाये रखा है वर्ना तो ----
सुन्दर आलेख -- अच्छी अभिव्यक्ति
अम्मी के लिये स्वास्थ्यलाभ की शुभकामनाए....
बड़ी बात
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1. विज्ञान । HASH OUT SCIENCE
2. चाँद, बादल और शाम
3. तकनीक दृष्टा
आयशा चाची कितनों को आईना दिखा गई..
बेहतरीन आलेख.
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