Saturday, August 1, 2009

प्रहर



अंधेरे हैं भागे प्रहर हो चली है।


परिंदों को उसकी ख़बर हो चली है।


सुहाना समाँ है हँसी है ये मंज़र।


ये मीठी सुहानी सहर हो चली है।


कटी रात के कुछ ख़यालों में अब ये।


जो इठलाती कैसी लहर हो चली है।


जो नदिया से मिलने की चाहत है उसकी।


उछलती मचलती नहर हो चली है।


सुहानी-सी रंगत को अपनों में बाँधे।


ये तितली जो खोले हुए पर चली है।



है क़ुदरत के पहलू में जन्नत की खुशबू।


बिख़र के जगत में असर हो चली है।


मेरे बस में हो तो पकडलुं नज़ारे।


चलो राज़ अब तो उमर हो चली है।








6 comments:

Vinay said...
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Vinay said...

बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल है
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· चाँद, बादल और शाम

दिगम्बर नासवा said...

मेरे बस में हो तो पकडलुं नज़ारे।
चलो ”राज़” अब तो उमर हो चली है।

जीवन इसी का नाम ही तो है......... रुकता नहीं......... उम्र बीत जाती है........... लाजवाब ग़ज़ल है........

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया गज़ल है बधाई।

M VERMA said...

कटी रात के कुछ ख़यालों में अब ये।
जो इठलाती कैसी लहर हो चली है।
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खयालो का लहराना सुन्दर है

36solutions said...

बहुत सुन्‍दर. आभार.